फिल्म हे गंगा मइया तोहे पियरी…

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जब भोजपुरी की पहली फिल्म हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ईबो रिलीज हुई थी. पटना के वीणा सिनेमा में प्रदर्शन हुआ था. इस सिनेमा के रिलीज होने के बाद की कई कहानियां लोग जानते होंगे. लोग बैलगाड़ी पर सवार होकर, समूह बनाकर इस सिनेमा को देखने जाते थे. बनारस में तो यह कहा ही जाने लगा कि काशी जाइये, गंगा—विश्वनाथ कीजिए और उसके बाद हे गंगा मइया देखिए तो बनारस की यात्रा पूरी होगी. इस फिल्म की कहानी बनने की कहानी भी कमोबेश लोग जानते ही हैं. नजीर हुसैन साहब वर्षों से कहानी लेकर घूम रहे थे. वे भोजपुरी में ही देवदास बनाना चाहते थे. बात बन नहीं पा रही थी. बाद में राजेंद्र प्रसाद ने विश्वनाथ शाहाबादी को कहा कि आप भोजपुरी में फिल्म बनाइये. विश्वनाथ शाहाबादी माइका के कारोबारी थे. गिरिडीह—कोडरमा आदि में उनका काम चलता था. वे आजादी की लड़ाई के दौरान खादी आंदोलन में शामिल थे. शाहाबादीजी तैयार हो जाते हैं. बजट तय होता है. फिल्म बनते—बनते बजट बहुत बढ़ जाता है. फिल्म के लिए गीत लिखने की बारी आती है तो शैलेंद्र तैयार होते हैं. शैलेंद्र कौन, यह हर कोई जानता है.हिंदी सिनेमा के गीतकारों की लिस्ट बने तो टॉप के कुछ लोगों में उनका नाम होगा. शैलेंद्र कम समय के लिए ही आरा में रहे थे लेकिन अपनी मातृभाषा से, अपनी माटी से उनका लगाव था कि वे गीत लिखते हैं. चित्रगुप्त संगीत देते हैं. हिंदी जगत में अपनी पहचान बना चुके लोग अपनी मातृभाषा के लिए ललक के साथ सिर्फ तैयार नहीं होते, कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए रस्मअदायगी नहीं करते, पूरी तरह से इनवॉल्व हो जाते हैं. फिल्म के विशेष शो की बात आती है दिल्ली में. डॉ राजेंद्र प्रसाद, जगजीवन राम जैसे नेता उत्साह से लगते हैं. दिल्ली में बड़े नेताओं के बीच प्रदर्शन होता है. गर्व के साथ राजेंद्र बाबू, जगजीवन बाबू जैसे लोग अपनी भाषा, अपनी माटी के फिल्म को लोगों को बुला—बुलाकर दिखाते हैं.अब आज नजर दौ​ड़ाइये. कितने बड़े लोग, जिनकी मातृभाषा भोजपुरी है, वे भोजपुरी से इस तरह से मोहब्बत करते हैं. राजनीति से, साहित्य से, दूसरी तमाम विधाओं से ऐसे लोगों को तलाशिये. कम, बहुत कम लोग मिलेंगे. मुश्किल से चंद लोग. तो जो बड़े लोग थे, उन्होंने अपनी मातृभाषा से लगाव—जुड़ाव का नाता तोड़ लिया. वैक्युम रह नहीं सकता था तो फर्जी संस्थाएं खड़ी होने लगीं भोजपुरी सेवा के नाम पर. वह फर्जी संस्थाएं कैसी,​ जिनका लक्ष्य और मकसद भोजपुरी का आयोजन कराना. बड़े लोगों को बुलाना. अपना परिचय दुरूस्त करना. साहित्य—संसकृति से ज्यादा राजनीति के लोगों को बुलाना. भोजपुरी में आयोजन के नाम पर भोजपुरी सम्मेलन की परंपरा थी. साल में एक बार ऐतिहासिक व्याख्यान होता था. हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, भागवत शरण उपाध्याय जैसे विख्यात लोग आते थे भोजपुरी के मंच पर, अपनी मातृभाषा के आयोजन में शामिल होते थे. वे खुलकर अपनी बात रखते थे. भिखारी ठाकुर, महेंदर मिसिर, रसूल मियां जैसे लोगों की परंपरा तो थी ही भोजपुरी की, बाबू रघुवीर नारायण, भोलानाथ गहमरी, मनोरंजन प्रसाद सिन्हा, मोती बीए, धरीक्षणजी, महेश्वराचार्य जैसे लोगों की परंपरा थी भोजपुरी में, जो अंग्रेजी में, हिंदी में उंचाई पर पहुंचने के बाद सब छोड़ अपनी मातृभाषा की दुनिया में लौट रहे थे. सब कुछ तेजी से बदला. बड़े लोगों ने मुंह मोड़ा तो वैक्युम रह नहीं सकता था. नायक विहीन समाज रह नहीं सकता था तो अर्जी फर्जी लोग लोकनायक बनने लगे. ऐसे ऐसे गायक कलाकार नायक बनने लगे, जिनका ना तो भोजपुरी की परंपरा से वास्ता था, ना उससे कोई सरोकार या मोहब्बत. भोजपुरी समाज भी उसी में मगन हुआ. उन्हें नायक बनाने लगा, मानने लगा. उन नायकों के उभार के लिए सिनेमा को बढ़ाया जाने लगा. ​दंगल के बाद रूका हुआ भोजपुरी सिनेमा फिर से शुरू हुआ. इन नायकों के लिए नायिकाएं अपने इलाके की नहीं चलती, क्योंकि इन्हें हॉट जैसा कुछ बेचना था तो वैसी नायिकाएं लायी गयीं. बाद में और भी कई. फिर कुछ अपने इलाके से भी तलाशी गयीं जो नायकों के नायकत्व को उभारने में भोजपुरी के स्वत्व को उघार सके. भोजपुरी समाज में स्त्रियों को महज तन का पुतला के रूप में पेश कर सके. एक शुन्यता आती गयी. गायकों—नायकों की दुनिया बढ़ती गयी. गायक नायक बनते गये. सिनेमा की फैक्ट्री खुल गयी गायकों को नायक बनाने के लिए. और नतीजा जो हुआ वह सब जानते हैं. गायक—नायक प्रधान समाज बने भोजपुरी ने, गायकों को नायक बनाने के लिए बननेवाले भोजपुरी सिनेमा ने शेष बचे लोगों को भी भोजपुरी से काटा. जिस गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ईबो को देखने, उसके बाद की फिल्मों को जैसे बलम परदेसिया, लागे नहीं छुटे रामा, धरती मइया आदि को देखने सपरिवार लोग जाते थे, वे सिनेमा देखना छोड़ दिये. सिनेमा बनता रहा. ब्लैक मनी को व्हाईट करने के लिए, गायकों को नायक बनाने के लिए.(जारी…)

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